आज हम कितनी ही बातें नारी स्वतंत्रता के विषय में कर ले, लेकिन क्या वास्तव में नारी स्वतंत्र हो पायी है। बचपन से लेकर युवावस्था तक अपने पिता और भाईयों के कहे अनुसार चलती है।छोटी-छोटी बातों पर उन पर निर्भर रहती है। वास्तव में उसे जिंदगी के बहुत जरूरी कामों की सीख ही नहीं दी जाती है। घर के कामों तक ही उसको सीमित रखा जाता है। ज्यादातर तो उसकी योग्यता पर ही शक किया जाता है। बहुत हद तक यह बात सही है कि लड़की का व्यक्तित्व,लड़के से विशेष रूप से भिन्न होता है लेकिन वो भी इसी दुनिया में रह रही है। उसे भी जीवन के वैसे ही मौके और साधन मिलने चाहिए जो कि एक लड़के को मिलते हैं ।
बचपन से ही उसके साथ सौतेला व्यवहार किया जाता है। इस तरह के व्यवहार के लिए माता-पिता दोनों ही पूर्ण रूप से जिम्मेदार हैं। भोजन की मात्रा और उसकी गुणवत्ता लड़के और लड़की के लिए अलग-अलग होती है। लड़का स्कूल आकर खेलने जा सकता है लेकिन लड़की को घर के काम सौप दिए जाते है। लड़के के करियर बनाने के लिए उस पर पूरा ध्यान दिया जाता है, लड़की का करियर को इतना महत्व नहीं दिया जाता है। दोनों को ही आत्मनिर्भर बनाना प्रत्येक माता-पिता का कर्त्तव्य है। जीवन-साथी के चुनाव में भी बहुत जगह तो लड़की से कोई भी बात नहीं की जाती है जबकि लड़के को चुनाव के लिए स्वतंत्र रखा जाता है।
विवाह हो जाने पर अब अपने पति के अधीन हो जाती है। उसके पूरे व्यक्तित्व के स्वामी उसके पति को मान लिया जाता है। यहाँ तक की उसे अपने मायके जाने के लिए भी पति और ससुराल वालो पर निर्भर रहने लगता है। नौकरी करनी चाहिए या नहीं या कहाँ पर नौकरी करना चाहिए और कहाँ नहीं सब कुछ उसके घर के लोग तय करते है। कितनी संताने होनी चाहिए पति या ससुराल वाले तय करते है। पैदा होने वाली संतान लड़का हो या लड़की ये भी दुसरे तय करते है। एक संतान (कन्या) होने पर उसे दूसरी संतान (पुत्र) पैदा करने के लिए विवश किया जाता जाता है। इस बात के लिए भले ही उसका शरीर और स्वास्थ्य साथ न दे रहा हो। यदि किन्ही कारणों से संतान का जन्म नहीं हो रहा हो तो पत्नी को ही जिम्मेदार ठहराया जाता हैं पति को नहीं। इस बारे में केवल पुत्र-वधू को को किसी न किसी प्रकार से प्रताड़ित किया जाता है पुत्र से तो इस बारे कोई बात भी नहीं की जाती है।
बचपन से आज तक वो क्या करना चाहती थी और अब क्या करना चाहती है उससे कोई नहीं पूछता है। उसकी क़ाबलियत को उभरने का मौका ही नहीं दिया जाता है। सबको केवल उसको परम्पराओं ने नाम पर जंजीरों में बंधना ही आता है। उसे भी कभी उड़ने के लिए आसमान देकर तो देखे कि उसके भी पंखो में बहुत जान है जो उसे आसमान की असीम ऊँचाई तक लेकर जा सकते हैं और समय आने पर मुसीबतों पर झपट्टा मारकर सफलता के सागर में गोता भी लगा सकते है। एक कैनवास तो उपलब्ध कराये जिस पर वो अपने रंगीले सपनों को उतार सके।
क्या यह बात हर परिवार या जगह सच है।
मैं बेटी का पिता तो नहीं हूं लेकिन मेरे कई सहयोगी और मित्र हैं। मुझे वैसा कभी नहीं लगा जैसा आपने लिखा है।
मुझे अपनी बहन के साथ भी ऐसा नहीं लगा। मेरी मां और चाचियां सबने अपनी पढ़ाई शादी के बाद पूरी की, वह भी हॉस्टल में रह कर।
हां बस मैं ही अपने सपने पूरे न कर पिता के कहने पर वापस आ गया।
यह बात हर परिवार और जगह के लिए सच नहीं है। ज्यादातर जो होता है वो ही लेख में लिखा है।
Yeah you are saying right. you may read read more article on gender discramination, so you can think wider.
क्या यह बात हर परिवार या हर जगह सच है।
मैं बेटी का पिता तो नहीं हूं लेकिन मेरे कई सहयोगी और मित्र हैं। मुझे वैसा कभी नहीं लगा जैसा आपने लिखा है।
मुझे अपनी बहन के साथ भी ऐसा नहीं लगा। मेरी मांं और चाचियां सबने अपनी पढ़ाई शादी के बाद पूरी की, वह भी हॉस्टल में रह कर।
हां बस मैं ही अपने सपने पूरे न कर पिता के कहने पर वापस आ गया।
its very good
i appreciate your feelings.
well done………!!! 😉